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मिलती है ख़ू-ए-यार से नार इल्तिहाब में / ग़ालिब

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मिलती है ख़ू-ए-यार से नार इल्तिहाब में
काफ़िर हूँ गर न मिलती हो राहत अज़ाब में

कब से हूँ क्या बताऊँ जहाँ-ए-ख़राब में
शब हाय हिज्र को भी रखूँ गर हिसाब में

ता फिर न इन्तज़ार में नींद आये उम्र भर
आने का अहद कर गये आये जो ख़्वाब में

क़ासिद के आते-आते ख़त इक और लिख रखूँ
मैं जानता हूँ जो वो लिखेंगे जवाब में

मुझ तक कब उन की बज़्म में आता था दौर-ए-जाम
साक़ी ने कुछ मिला न दिया हो शराब में

जो मुन्किर-ए-वफ़ा हो फ़रेब उस पे क्या चले
क्यूँ बदगुमाँ हूँ दोस्त से दुश्मन के बाब में

मैं मुज़्तरिब हूँ वस्ल में ख़ौफ़-ए-रक़ीब से
डाला है तुम को वह्म ने किस पेच-ओ-ताब में

मै और हिज़्ज़-ए-वस्ल, ख़ुदासाज़ बात है
जाँ नज़्र देनी भूल गया इज़्तिराब में

है तेवरी चढ़ी हुई अंदर नक़ाब के
है इक शिकन पड़ी हुई तर्फ़-ए-नक़ाब में

लाखों लगाव, इक चुराना निगाह का
लाखों बनाव, इक बिगड़ना इताब में

वो नाला दिल में ख़स के बराबर जगह न पाये
जिस नाले से शिगाफ़ पड़े आफ़ताब में

वो सेह्र मुद्दा तल्बी में न काम आये
जिस सेह्र से सफ़िना रवाँ हो सराब में

"ग़ालिब' छूटी शराब, पर अब भी कभी-कभी
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब में