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मिले किनारे (ताँका-चोका-संग्रह) / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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भाव-कलश:भावों का अवगाहन ताँका जापानी काव्य शैली वाका का ही एक रूप है । दसवीं शती के शुरू में वाका का एक ही रूप 'ताँका' ज्यादा प्रचलित था, चोका बहुत कम लिखा जाता था । तब से वाका को ' ताँका' ही माना जाने लगा ।

           यह प्रगीत  काव्य हाइकु से भी पुरातन है । ताँका 1200 साल पुरातन शैली है जबकि हाइकु 300 साल पुराना ।बहुत से बदलावों के बाद ताँका का आज का प्रतिरूप प्रचलित हुआ ; जिसमें क्रमश 5 + 7 +5 + 7 +7 के क्रम कुल इकतीस वर्ण और पाँच पंक्तियाँ होती हैं ।
       ताँका  के दो भाग होते हैं - 5+7+5 को कामि- नो- कू  यानी उच्चतर वाक्यांश तथा 7+7 को ' शिमो नो कू ' यानी निम्न वाक्यांश कहा जाता है ।आठवीं शती का जापान का सबसे पुरातन काव्य संकलन ' मान्योशु ' में ताँका शैली में कविताएँ लिखी गईं । 
            इस काव्य शैली का मुख्य लक्षण है कि इसमें भावनाओं का पूर्ण विस्तार सहज व संश्लिष्ट रूप में किया जाता है । शब्दों की पहुँच से परे की सांकेतिक  भाषा का प्रयोग इसे और भी अधिक प्रभावी और अर्थगर्भित बना देता  है । 
          ताँका पढ़ने व लिखने का अभ्यास हमें प्रसन्नता से पूर्णता तक , अन्तर्दृष्टि से व्यापकता तक, उत्तेजनशीलता से आत्मिक प्यार तक ले जाता है । इस अवस्था को पाने के लिए हमें अपने -आप में कुछ बदलाव लाना जरूरी है जैसे कहीं सरसरी दृष्टि डालने से एकटक देखने तक , आभास से अन्वेषण ( खोज) तक , केवल जानने  से परिप्रेक्ष्य के  अवलोकन और विश्लेषण तक । लेखन का जो आधार होता, जो चिन्तन की पृष्ठभूमि  होती है;वही परिप्रेक्ष्य होता है , दृष्टिकोण से थोड़ा व्यापक , मगर सन्दर्भ के ज़्यादा निकट ।
          ताँका अनुभव की कविता है ,जिसमें उपमान योजना  प्रयोग उसे और भी गहन और सम्प्रेषणीय बना देता  है । यह हमें संज्ञा के काव्य से क्रिया के काव्य तक ले जाता है, जहाँ स्पष्ट वाणी से व्यक्त किया जाता है । सरल शब्दों में कहा जाए तो यह धागे से कपड़े तक का, बीज  से पौधे तक , रेखाओं से रंगदार चित्र तक या स्वरों से संगीत तक का सफ़र है ।
        डॉ सुधा गुप्ता जी  ने सन् 2000 में ताँका लिखना शुरू किया था। इनके 56 ताँका ‘बाबुना जो आएगी’(2004) में तथा 61ताँका ‘कोरी माटी के दिये’(2009) संग्रह में छपे।जनवरी 2009 में डॉ उर्मिला अग्रवाल का ताँका संग्रह-‘अश्रु नहायी हँसी’(96 ताँका) तथा 2010 में ‘यायावर मन’ (108 ताँका)प्रकाशित हुआ । इसके बाद 2011 में डॉ सुधा गुप्ता का स्वतन्त्र ताँका संग्रह ‘सात छेद वाली मैं’  आया है । इसमें इनके 153 ताँका संगृहीत हैं । इस क्षेत्र में ये तीनों संग्रह उल्लेखनीय ही नही पठनीय भी हैं। रामेश्वर काम्बोज हिमांशु तथा डॉ. हरदीप कौर सन्धु का ताँका - चोका संग्रह ' मिले किनारे' (2011),) और रेखा रोहतगी का ताँका -हाइकु संग्रह ' अथ से इति' ( 2011) में  प्रकाशित हुए हैं । यह सभी  संकलन उल्लेखनीय ही नहीं पठनीय भी हैं । मनोज सोनकर का संग्रह ' ताँका -तरंग ( 2011) भी प्रकाशित हुआ है।‘हिन्दी हाइकु’ ब्लॉग पर पहले से ही ताँका प्रकाशित किए जा रहे हैं ।
     रामेश्वर काम्बोज जी तथा मैंने सितंबर 2011 में ' त्रिवेणी ' ब्लॉग शुरू किया है। इस ब्लॉग पर हिन्दी साहित्य की तीन विधाओं - हाइगा - ताँका - चोका में साहित्य प्रकाशित किया जा रहा है । इसके  माध्यम से विश्व भर के रचनाकारों को ताँका से जोड़ने का प्रयास किया गया है जिनमें से 28 कवियों के ताँका का चुनाव कर यह