भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुक़द्दर का सूरज घटाओं में था / रमेश 'कँवल'

Kavita Kosh से
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:44, 4 जनवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेश 'कँवल' |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGhaz...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुक़द्दर का सूरज घटाओं में था मेरा
हाले-ख़स्ताभ2 ख़लाओं में था

सभी हंस रहे थे,मुझे देखकर
बिखरता हुआ मैं हवाओं में था

शिकन की तहें मेरे माथे पे थीं
कि दरपन भी ना आशनाओं में था

मै सुक़रात था चीख़ता किस तरह
सकूते-अजब5 भी दिशाओं में था

मेरे होंटों पर थी लबों की तपन
मुझे चैन ज़ुल्फ़ों की छावों में था

कोर्इ शहर में था परेशां बहुत
कोर्इ शख्स बेचैन गांवों में था

शबो-रोज़6 बिखरी हुर्इ ज़िन्दगी
'कंवल’ इससे बेहतर गुफाओं में था

1 भाग्य, 2. दुखी, 3. वृतांत,
4. अनभिज्ञ, 5. अहंकारकीचुप्पी,
6. रातदिन.