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मुझसे है ये सारी दुनिया मान कर छलता रहा / मानोशी
Kavita Kosh से
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मुझसे है ये सारी दुनिया मान कर छलता रहा मैं ज़मीं में दफ़्न था ऊपर जहां चलता रहा
बस मुकम्मल होने की उस चाह में ताउम्र यूँ ख़्वाब इक मासूम सा कई टुकड़ों में पलता रहा
था नहीं कोई धुआँ और आग भी थी बुझ चुकी बेसबब फिर रात भर मैं आँख क्योँ मलता रहा
दुनिया की रस्मों में कुछ यूँ हो गई मस्रूफ़ियत अपने मरने का भी मातम कब मना, टलता रहा
उसको अब मुझसे शिकायत है कि मैं कमज़ोर हूँ ’दोस्त’ जिसकी ख़्वाहिशों में उम्र भर ढलता रहा