भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मुझे तस्लीम बे-चून-ओ-चुरा तू हक़-ब-जानिब था / शहराम सर्मदी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शहराम सर्मदी |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
 
पंक्ति 8: पंक्ति 8:
 
<poem>
 
<poem>
 
मुझे तस्लीम बे-चून-ओ-चुरा तू हक़-ब-जानिब था
 
मुझे तस्लीम बे-चून-ओ-चुरा तू हक़-ब-जानिब था
मिरे अन्फ़ास पर लेकिन अजब पिंदार ग़ालिब था
+
मिरे अन्फ़ास पर लेकिन अजब पिन्दार ग़ालिब था
  
वगर्ना जो हुआ उस से सिवाए रंज क्या हासिल
+
वगर्ना जो हुआ उस से सिवाए रँज क्या हासिल
 
मगर हाँ मस्लहत की रौ से देखें तो मुनासिब था
 
मगर हाँ मस्लहत की रौ से देखें तो मुनासिब था
  

02:44, 8 अगस्त 2019 के समय का अवतरण

मुझे तस्लीम बे-चून-ओ-चुरा तू हक़-ब-जानिब था
मिरे अन्फ़ास पर लेकिन अजब पिन्दार ग़ालिब था

वगर्ना जो हुआ उस से सिवाए रँज क्या हासिल
मगर हाँ मस्लहत की रौ से देखें तो मुनासिब था

मैं तेरे ब'अद जिस से भी मिला तीखा रखा लहजा
कि इस बे-लौस चाहत के एवज़ इतना तो वाजिब था

मैं कुछ पूछूँ भी तो अक्सर जवाबन कुछ नहीं कहता
गुज़िश्ता एक अर्से से जो बस मुझ से मुख़ातिब था

मैं उम्र-ए-रफ़्ता की बाज़ी से इतना ही समझता हूँ
शिकस्त ओ फ़तह दो हर्फ़-ए-इज़ाफ़ी खेल जालिब था