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"मुझे दुनिया का फलसफ़ा मालूम नहीं है / मुकेश जैन" के अवतरणों में अंतर

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'''मुझे दुनियाँ का फलसफ़ा मालूम नहीं है'''
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मुझे दुनिया का फलसफ़ा मालूम नहीं है।
  
मुझे दुनियाँ का फलसफ़ा मालूम नहीं है.
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बच्चा ख़ुद को नंगा देखकर ख़ुश होता है।
  
बच्चा खुद को नंगा देखकर खुश होता है.
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न-जाने-हुए फलसफ़े को ढोते ढेरों लोग
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रोज़ मरते हैं। लोगों की आँखों में झाँको
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तो न-जाना-सा फलसफ़ा एक खौफ़ की
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मानिंद भीतर उतर जाता है। जहाँ बच्चों
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की आँखों की नग्नता अँकुराती है।
  
न-जाने-हुए फलसफ़े को ढोते ढेरों लोग<br />
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अख़बार पढ़ते हुए अचानक कविता
रोज़ मरते हैं. लोगों की आँखों में झाँको<br />
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पढ़ना पढ़े तो एक बैचेनी-सी होती है।
तो -जाना-सा फलसफ़ा एक खौफ़ की<br />
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यहीं से दुनिया के फलसफ़े का सिरा
मांनिंद भीतर उतर जाता है. जहाँ बच्चों<br />
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शुरु होता है।
की आँखों की नग्नता अँकुराती है.
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अखबार पढ़ते हुए अचानक कविता<br />
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कविता प्रिया की तरह नहीं आती है।
पढ़ना पढ़े तो एक बैचेनी-सी होती है.<br />
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तग़ादा करने आए बनिए की तरह
यहीं से दुनियाँ के फलसफ़े का सिरा<br />
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एहसास कराती है।
शुरु होता है.
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कविता प्रिया की तरह नहीं आती है.<br />
 
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'''रचनाकाल''': 20/जनवरी/1996
 
'''रचनाकाल''': 20/जनवरी/1996
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21:51, 30 जनवरी 2010 के समय का अवतरण

मुझे दुनिया का फलसफ़ा मालूम नहीं है।

बच्चा ख़ुद को नंगा देखकर ख़ुश होता है।

न-जाने-हुए फलसफ़े को ढोते ढेरों लोग
रोज़ मरते हैं। लोगों की आँखों में झाँको
तो न-जाना-सा फलसफ़ा एक खौफ़ की
मानिंद भीतर उतर जाता है। जहाँ बच्चों
की आँखों की नग्नता अँकुराती है।

अख़बार पढ़ते हुए अचानक कविता
पढ़ना पढ़े तो एक बैचेनी-सी होती है।
यहीं से दुनिया के फलसफ़े का सिरा
शुरु होता है।

कविता प्रिया की तरह नहीं आती है।
तग़ादा करने आए बनिए की तरह
एहसास कराती है।


रचनाकाल: 20/जनवरी/1996