भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरा दिल जिस दिन मचलेगा, यार तुझे बहलाना होगा / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
मेरा दिल जिस दिन मचलेगा, यार तुझे बहलाना होगा
मुझपे इनायत करनी होगी, और करम फ़रमाना होगा

रोक सके तो रोक ले कोई, पालने वाले की किरपा से
उड़ कर आ जाएगा मुहं में, जो क़िस्मत का दाना होगा

किसको पता था, किसको ख़बर थी, आएगा इक दिन ऐसा भी
पीने होंगे आंसू भी कुछ, और कुछ ग़म भी खाना होगा

अपनी मोहब्बत के चर्चे भी, होंगे महफ़िल महफ़िल में कल
हम तो नहीं होंगे दुनिया में, पर अपना अफसाना होगा

सुनते थे बचपन में क़िस्से, अपने दादी-दादा से हम
ऐसे भी दिन आएँगे जब धन, सुख-दुःख का पैमाना होगा

बच्चों को सुख देना है तो, फिर मेहनत भी करनी होगी
जाकर रोज़ सवेरे घर से, रात गए ही आना होगा

तुम हो 'रक़ीब'-ए-अहले मुहब्बत, तुमको सज़ा दी जाती है ये
साज़ पे ग़म के गीत खुशी का, अब तुम ही को गाना होगा