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मेरा बाल्यकाल / संगम मिश्र

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स्वप्निल बचपन की यादों में,
कुछ पल को जब खो जाऊँ मैं।
कुछ सोच खुशी से झूम उठूँ,
अत्यानन्दित हो जाऊँ मैं॥

यादों में प्रतिपल चित्रित हैं,
कच्ची मिट्टी के सज्जित घर।
मनमोहक सोंधी-सी सुगन्ध,
अब भी आती है रह रहकर।
मिट्टी के दीपों से सजता,
सन्ध्या देवी का मृदुल अङ्ग।
स्नेहिल प्रस्पर्श परिजनों का,
मन पाता था प्रत्येक प्रहर।

हर उत्सव हर आयोजन में,
जी भर कर नाचूँ गाऊँ मैं,
कुछ सोच खुशी से झूम उठूँ,
अत्यानन्दित हो जाऊँ मैं॥

हरियाली सर्व दिशाओं में,
जीवन्त रम्य आकर्षण था।
सुन्दरी उषा के किरणों में,
मोहक सिन्दूरी वर्षण था।
गोधुलि में नभ से एक छोर,
जब रक्तिम सूर्य विदा होता।
सुन सकरुण रव खगवृन्दों का,
भावुक हो उठता जन-जन था।

विस्तृत घनघोर बगीचों में,
कल्पित भय से थर्राऊँ मैं।
कुछ सोच खुशी से झूम उठूँ,
अत्यानन्दित हो जाऊँ मैं॥

अगवानी करते पथ सारे,
नन्हें नन्हें सुकुमारों की।
हरती थकान थी स्वच्छ हवा,
हम निश्छल बाल दुलारों की।
चन्दा सूरज की किरणें भी,
हमसे मिलने को आतुर थीं।
अब भी वे राहें देख रहीं,
अपनी आँखों के तारों की।

मन करता नवल पुष्प बनकर,
उन सबका हिय हरषाऊँ मैं।
कुछ सोच खुशी झूम उठूँ,
अत्यानन्दित हो जाऊँ मैं॥

क्या भद्र दिवस थे हम सबके,
अतुलित आनन्द उठाते थे।
भोले मित्रो के सङ्ग सदा,
नित नित नव खेल दिखाते थे।
माँ पाँव दबाती रहती थी,
सुखमयि निद्रा आ जाने तक।
लयबद्ध पक्षियों के कलरव,
प्रातः में हमें जगाते थे।

मनभावक मृदु सङ्गीतों में,
सम्मोहित हो मुस्काऊँ मैं।
कुछ सोच खुशी से झूम उठूँ,
अत्यानन्दित हो जाऊँ मैं॥

होकर अवलुण्ठित कीचड़ में,
मेघों का हृदय रिझाते थे।
नखरीली बरखा रानी को,
जब चाहें तब बरसाते थे।
अकुलायी तप्त मेदिनी का,
जब अंत सजल हो जाता था।
हम सबके खेत हरित होकर,
जीवन के गीत सुनाते थे।

एषणा सदा उन दृश्यों का,
फिर से दर्शन कर पाऊँ मैं।
कुछ सोच खुशी से झूम उठूँ,
अत्यानन्दित हो जाऊँ मैं॥

छुटपन के प्रियअनमोल दिवस,
हम पुनः नहीं हैं पा सकते।
है परम सत्य! पर कभी नहीं,
भ्रामक मन को समझा सकते।
पल-पल की सारी घटनायें,
हैं रोम-रोम में बसी हुयीं।
सम्पूर्ण सुनहरी यादों को,
मर कर भी नहीं भुला सकते।

नीरवता में बीते कल को,
व्याकुल हो पास बुलाऊँ मैं।
कुछ सोच खुशी से झूम उठूँ,
अत्यानन्दित हो जाऊँ मैं॥

ईश्वर ने ऐसा दुर्लभ पल,
मुझ नश्वर को दर्शाया है।
युवराजों जैसा बाल्यकाल,
मन किञ्चित भूल न पाया है।
प्राणों-सी प्रिय है जन्मभूमि!
जीवन पथ के हर इक पग पर-
जिस पुण्य मृदा का संरक्षण,
तन मन को पुष्ट बनाया है।

हे देव! वही गोदी पाकर,
अन्तिम क्षण में सो जाऊँ मैं।
कुछ सोच खुशी से झूम उठूँ,
अत्यानन्दित हो जाऊँ मैं॥

स्वप्निल बचपन की यादों में,
कुछ पल को जब खो जाऊँ मैं।
कुछ सोच खुशी से झूम उठूँ,
अत्यानन्दित हो जाऊँ मैं॥