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मेरा माथा उबलती धूप छू के लौट जाती है / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

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मेरा माथा उबलती धूप छू के लौट जाती है।
सवेरे रोज़ सूरज को मेरी माँ जल चढ़ाती है।

कहीं भी मैं रहा पर आजतक भूखा नहीं सोया,
मेरी माँ एक रोटी गाय की हर दिन पकाती है।

पसीना छूटने लगता है सर्दी का यही सुनकर,
अभी तक गाँव में हर साल माँ स्वेटर बनाती है।

नहीं भटका हूँ मैं अब तक अमावस के अँधेरे में,
मेरी माँ रोज़ रब के सामने दीपक जलाती है।

सदा ताज़ी हवा आके भरा करती है मेरा घर,
नया टीका मेरी माँ रोज़ पीपल को लगाती है।