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"मेरी ज़बान उनके दहन में हो ऐ करीम / साक़िब लखनवी" के अवतरणों में अंतर

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‘साक़िब’! जहाँ में इश्क़ की राहें हैं बेशुमार।
 
‘साक़िब’! जहाँ में इश्क़ की राहें हैं बेशुमार।
हैरान अक़्ल है कि चलूं किस निशान पर॥
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हैरान अक़्ल है कि चलूँ किस निशान पर॥
  
 
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00:19, 10 सितम्बर 2009 के समय का अवतरण


मेरी ज़बान उनके दहन में हो ऐ करीम!
होना है फ़ैसला जो उन्हीं के बयान पर॥

‘साक़िब’! जहाँ में इश्क़ की राहें हैं बेशुमार।
हैरान अक़्ल है कि चलूँ किस निशान पर॥