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मेरे अपना आप होने में ही मेरी ज़िन्दगी है / रमेश तन्हा

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मेरे अपना आप होने में ही मेरी ज़िन्दगी है
रौशनी की हर बिशारत मुझको अंदर से मिली है।

ऐसी कब सोची थी हमने जैसी हालत हो गई है
मसलहत उफ्ताद बन कर सब के सर पर आ पड़ी है।

आसमां से बिजलियाँ गिरती हैं, धरती फट रही है
ऐसे लगता है कि जैसे रोज़-ए-महशर आज ही है।

चांद सूरज की तरह सब लोग अंधे हो रहे हैं
अपने अंदर झांकने की अब किसे फ़ुर्सत रही है।

लोग भूखे मर रहे हैं और गल्ला सड़ रहा है
मसलहत अहले-सियासत की तिजौरी भर रही है।

हर किसी को एक अंदाज़े-सुख़न मिलता है रब से
बात जो मैं कह रहा हूँ आज तक किसने कही है।

कुछ तो कारे-बेहिसी में खुद ही धँसता जा रहा हूँ
कुछ नई तहज़ीब ने मेरी ज़कावत छीन ली है।

हम जहां पर थे अज़ल के दिन, वहीं पर आज भी है
ज़िन्दगी लगता है जैसे एक नुक्ते पर रुकी है।

काम निबटाने की जल्दी में हुआ है यूँ भी अक्सर
हाथ की हम ने हथौड़ी खुद ही सर पर मार ली है।

ज़िन्दगी मेरे ही होने की अज़ल से मुंतज़िर थी
हो गया हूँ मैं तो हर सू ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी है।

क्या करोगे जा के तुम उस शहर-ए-पुरसां में तन्हा
लाख कहने को वहां सब ख़ैरियत है शांती है।