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"मेरे प्रेम दिये को भाता तेरा अँगना था / 'सज्जन' धर्मेन्द्र" के अवतरणों में अंतर

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वो भी साबुत बचा नहीं होता।
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मेरे प्रेम दिये को भाता तेरा अँगना था।
रब अगर लापता नहीं होता।
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शायद किस्मत में तेरे होंठों से बुझना था।
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मुझे पिलाकर लूट लिया जिसने वो गैर नहीं,
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मेरे दिल में रहने वाला मेरा अपना था।
  
झूठ ने इस कदर पिला दी मय,
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जाने से पहले वो सीने से लग के रोई,
पाँव पर सच खड़ा नहीं होता।
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सच था वो लम्हा या कोई दिन का सपना था।
  
ताज को छू के मौलवी कह दे,
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छोड़ गए सब रहबर साथ मेरा बारी बारी,
पत्थरों में ख़ुदा नहीं होता।
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मैं था एक मुसाफिर मुझको फिर भी चलना था।
  
नूर सूरज से छीन लेता है,
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अब ज़िंदा हूँ या मुर्दा ये कहना मुश्किल है,
पेड़ यूँ ही हरा नहीं होता।
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प्यार न देती गर विष में वो तब तो मरना था।
  
लूट लेते हैं फूल को काँटे,
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फ़र्क़ नहीं था जीत हार में कहता है ‘सज्जन’,
आज दुनिया में क्या नहीं होता।
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अपने दिल के टुकड़े से ही उसको लड़ना था।
 
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14:40, 5 जुलाई 2014 का अवतरण

मेरे प्रेम दिये को भाता तेरा अँगना था।
शायद किस्मत में तेरे होंठों से बुझना था।

मुझे पिलाकर लूट लिया जिसने वो गैर नहीं,
मेरे दिल में रहने वाला मेरा अपना था।

जाने से पहले वो सीने से लग के रोई,
सच था वो लम्हा या कोई दिन का सपना था।

छोड़ गए सब रहबर साथ मेरा बारी बारी,
मैं था एक मुसाफिर मुझको फिर भी चलना था।

अब ज़िंदा हूँ या मुर्दा ये कहना मुश्किल है,
प्यार न देती गर विष में वो तब तो मरना था।

फ़र्क़ नहीं था जीत हार में कहता है ‘सज्जन’,
अपने दिल के टुकड़े से ही उसको लड़ना था।