"मेरे मन में कोई राधा बेसुध तान लिए बैठी है / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर
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मैं आँसू बरसाता जाता, यह मुस्कान लिये बैठी है | मैं आँसू बरसाता जाता, यह मुस्कान लिये बैठी है | ||
− | इसका | + | इसका दुख मेरे गीतों में, इसकी जलन हृदय में मेरे |
मेरी साँसों में इसकी ही विरहाकुल साँसों के फेरे | मेरी साँसों में इसकी ही विरहाकुल साँसों के फेरे | ||
− | यह मेरी चिर तृषा, अमर अनुभूति, मूक प्राणों की भाषा | + | यह मेरी चिर-तृषा, अमर अनुभूति, मूक प्राणों की भाषा |
मर्म-दीप की शिखा न जिसको छू पाए शलभों के घेरे | मर्म-दीप की शिखा न जिसको छू पाए शलभों के घेरे | ||
− | चिर अभिशापों में पलकर भी कुछ वरदान लिये बैठी है | + | चिर-अभिशापों में पलकर भी कुछ वरदान लिये बैठी है |
मेरे मन में कोई राधा बेसुध तान लिए बैठी है | मेरे मन में कोई राधा बेसुध तान लिए बैठी है | ||
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02:03, 14 जुलाई 2011 के समय का अवतरण
मेरे मन में कोई राधा बेसुध तान लिए बैठी है
राका निशि में अब मोहन की मुरली नहीं सुनाई देती
यमुना-तीर वही, पर कोई हलचल नहीं दिखाई देती
रूठ छिपी थी मानवती जो उस दिन श्याम तमाल-वनों में
चिर वियोगिनी वह अब मेरे स्वर में बैठ दुहाई देती
युग-युग बीत गए पर अब भी वह निज मान लिए बैठी है
इतना रूप, राग, रस देकर, लेते इतनी क्रूर परीक्षा
कभी न पूरी हो पायेगी, इस राधा की विकल प्रतीक्षा
फूलों-सा आनन कुम्हलाया, आँचल फटा, चरण क्षत-विक्षत
जाने किस उद्धव से ली है, इसने प्रेम-योग की दीक्षा!
मैं आँसू बरसाता जाता, यह मुस्कान लिये बैठी है
इसका दुख मेरे गीतों में, इसकी जलन हृदय में मेरे
मेरी साँसों में इसकी ही विरहाकुल साँसों के फेरे
यह मेरी चिर-तृषा, अमर अनुभूति, मूक प्राणों की भाषा
मर्म-दीप की शिखा न जिसको छू पाए शलभों के घेरे
चिर-अभिशापों में पलकर भी कुछ वरदान लिये बैठी है
मेरे मन में कोई राधा बेसुध तान लिए बैठी है