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मैं अमाँ की एक विस्तृत तान (पंचम सर्ग) / गुलाब खंडेलवाल

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मैं अमाँ की एक विस्तृत तान
चंद्रिका जिसकी नहीं जिसका न स्वर्ण-विहान

दूर मुझसे सिन्धु के दो कूल
नाव-सी मँझधार में आकर गयी पथ भूल
सो चुके दृग विफल करते तीर का संधान

गीत ने गति से किया विद्रोह
राग में अब कुछ नहीं आरोह या अवरोह
तार उतरे, साज बिखरा, हुए मूर्छित गान

तिमिर भी जलता मुझे छू हाय
पवन कंपित साँस से बुझाता नखत-समुदाय
कौन ले जाए उड़ा प्रिय तक हृदय का मान

मैं अमाँ की एक विस्तृत तान
चंद्रिका जिसकी नहीं जिसका न स्वर्ण-विहान

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कहीं मरीचियाँ कढ़ीँ, कहीं दिनांत हो गया
परन्तु हाय! युद्ध में समस्त ध्वांत हो गया
 
हरा मनुष्य ने दिया सुरेश, सूर्य, सोम को
स्वहस्त-न्यस्त-सा किया धरा समुद्र व्योम को
 
परन्तु हारता गया स्ववृत्ति के प्रभाव से
स्वदेश से, स्वजाति से, स्वबंधु से, स्वभाव से
 
विचार देवदूत-से अपंख व्योम में उड़े
परन्तु पाँव पाप के कगार से कभी मुड़े!
 
निसर्ग को भुजा किये अनंत कूप में गिरा
विकास प्राण में लिए, विनाश ढूँढता फिरा
 
किसी अमातृ वत्स को न माँ भले दिला सके
निमेष में उठा लिए, शिरस्थ लक्ष-लक्ष के
 
मिटी न प्राण की व्यथा, पुँछा न अश्रु गाल का
ससागरा वसुंधरा, किरीट धूल भाल का
 
मनुष्यते, अनंत में विलीन हो, विलीन हो
कहीं न व्योम से गिरे, दिनेश ज्योति-हीन हो
 
कहीं न पाप-ताप से, समस्त सृष्टि क्षार हो
भला यही निमेष में, धरा विमुक्त-भार हो
 
खड़ी नवीन मानवी नवीन प्राण-दान को
पुन: नयी मनुष्यता, पुन: नया विधान हो
 
विषाद को, प्रमाद को, भले न रोक हो वहाँ
मनुष्य के रचे नहीं, परन्तु शोक हो वहाँ
 
समस्त सद्-प्रवृत्तियाँ, समस्त सद्-विचार ले
नयी मनुष्यते उठो, विमुक्त-पंक क्षार से
 
उषा-मुखी निशा-सुखी दुखी कहीं न सृष्टि हो
अचिन्त्य आयु सर्वदा, यथेष्ट स्वर्ण-वृष्टि हो
 
अयत्न रत्न-संभवा, धरा अनुर्वरा न हो
समस्त शक्ति-सर्जिका वृथा परम्परा न हो
 
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