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"मैं क्या उत्तर दूँ! जीवन में जिसने यह आग लगायी है (प्रथम सर्ग) / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर

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तुम पूछ रहे मुझसे जो वह पूछो इन दुखिया आँखों से  
 
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श्यामल भ्रू-शर से बिंध उड़ती तितली की दोनों पाँखों से  
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देखा था पहली बार तुम्हें जब मैंने लतिका-अंचल से  
 
देखा था पहली बार तुम्हें जब मैंने लतिका-अंचल से  
 
अकलंक कलानिधि-से उठते धुलकर नभगंगा के जल से 
 
अकलंक कलानिधि-से उठते धुलकर नभगंगा के जल से 
 
 
 
 
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नि:श्वास सुधा-धारा भरते निर्जन के कोने-कोने में  
 
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उस दिन ये चंचल आँखें ही मन को ले अपने साथ उड़ीं
 
उस दिन ये चंचल आँखें ही मन को ले अपने साथ उड़ीं
अनुनय-मनुहारें  की लाखों मन की ममता ने, पर न मुडीं  
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अनुनय-मनुहारें की लाखों मन की ममता ने, पर न मुडीं  
 
 
 
 
 
जब तुम खोये-से रहते थे वट-तरु-सम्मुख व्रत-साधन में  
 
जब तुम खोये-से रहते थे वट-तरु-सम्मुख व्रत-साधन में  

02:06, 17 जुलाई 2011 के समय का अवतरण


मैं क्या उत्तर दूँ! जीवन में जिसने यह आग लगायी है
जब वही अपरिचित-सा पूछे--'यह लाली कैसी छायी है?'
 
सुन जिसको सोने की मछली मौक्तिक-गृह के बाहर निकले
सूर्यास्त-जलधि-वेला पर निज प्रतिध्वनि से विस्मित नाविक-से
 
तुम पूछ रहे मुझसे जो वह पूछो इन दुखिया आँखों से
श्यामल भ्रू-शर से बिँध उड़ती तितली की दोनों पाँखों से
 
देखा था पहली बार तुम्हें जब मैंने लतिका-अंचल से
अकलंक कलानिधि-से उठते धुलकर नभगंगा के जल से 
 
श्रद्धा की नतशिर भेंट लिये कोमल कुसुमों के दोने में
नि:श्वास सुधा-धारा भरते निर्जन के कोने-कोने में
 
बन कमल लहरियों में अपना स्मितिमय प्रतिबिम्ब खिलाते-से  
पूनो के विस्मित जलधर-से ऊषा से नयन मिलाते-से
 
उस दिन ये चंचल आँखें ही मन को ले अपने साथ उड़ीं
अनुनय-मनुहारें की लाखों मन की ममता ने, पर न मुडीं
 
जब तुम खोये-से रहते थे वट-तरु-सम्मुख व्रत-साधन में
मैं तितली-सी मँड़राती थी उस तपोभूमि के प्रांगण में
 
मैं अपने कोमल सपनों का संसार सजाती थी तुमसे
नव पारिजात की माला-से जो उतरे थे कल्पद्रुम से
 
तुम ऐसे विद्यालीन रहे, पुस्तक से आगे बढ़ न सके
पढ़ लिए शास्त्र-इतिहास सभी, नारी के मन को पढ़ न सके
 
मैं कर सोलह श्रृंगार चली, नभ के तारों ने टोक दिया
जब-जब आकुलता मचल पडी, तब-तब लज्जा ने रोक दिया
 
कल देख विदा का आयोजन मन और उपेक्षा सह न सका
आँसू में डूबी आँखों में अभिमान रूप का रह न सका
 
सागर से मिलने भादों की मदभरी नदी-सी बढ़ आयी 
मैं नील जलद-प्राचीरों से बिजली-सी बाहर कढ़ आयी
 
तुम बालारुण से प्रात चले जाओगे, लज्जा जडी हुई
मैं ऊषा-सी उदयाचल पर चुपचाप रहूँगी खड़ी हुई
 
कर पार चुके होगे द्रुत-पद तुम किरणों के कंचन-झरने
मैं लुटी पुजारिन संध्या-सी जब आऊँगी पूजा करने
 
अनसुनी पिकी की तान सदृश जब निर्जन में लहराऊँगी
मेरे प्रसूनधारी वसंत, मैं तुम्हें कहाँ फिर पाऊँगी'