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जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी कि एक कुएँ में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में
होनी से बेखबर कृष्ना कृष्णा बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया
और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज़ मौज मेंहोश में आई तो कृष्ना कृष्णा थी पिता की गोद में
जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें
बोला कृष्ना कृष्णा से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो
देखिए ना यह जो कृष्ना कृष्णा है चमारो के यहाँ
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ
पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना कृष्णा का हाल"
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !
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