भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं ज्ञान से अनगढ़, गढ़ना चाहता हूँ मिट्टी भर सौंधापन / सुरेश चंद्रा

Kavita Kosh से
Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:31, 19 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुरेश चंद्रा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वस्तुतः तुम
केवल एक देह नहीं हो

फिर भी
नहीं हो सकेगा मुझ से
आत्मा की आड़ भर से लिखना
कि देह मिट्टी भर है
और अंततः ढह जाना देह कि गंध मे
अलौकिक सुगंध कि संपुष्टि करते हुये

हालांकि
बिना अतिशयोक्ति-अलंकार के
मिट्टी कि भाषा मे क्लिष्ठ
लिख सकता हूँ
उतेजक शब्दों से परे
मेरे पोर-पोर पर अंकित
सिहरन कि हर लिखावट तुम्हारी

होठों पर होंठ धरते हुये
तुमने धर न दी होंगी
ढेरों प्राथनाएँ मुझमे
जिनसे गुहार सकता हूँ
हर संताप परिवर्तित प्रेम मे ??

केश जब गुदगुदाते होंगे
पीठ, कांधे, वक्ष
पार सिहरन से संतृप्त मन
न जगाता होगा भिक्षु
शांत, सौम्य सुधि तर्षित प्रेम मे ??

आलिंगन बद्ध भुजायों मे
कसते हुये कंपकंपाहट
गुंथ गए होंगे नाभि से नभ तक
जैसे गुंथ जाते हैं फूल एकाकार माला मे
पश्चात हर हलचल के समर्पित प्रेम मे ??

मैं ज्ञान से अनगढ़
अपरिपक्व अचेतन
गढ़ना चाहता हूँ
मिट्टी से केवल
... मिट्टी भर सौंधापन

मैं परित्यक्त हूँ
दर्शन की वैचारिक झंझाओं से
मेरा आत्म जीवंत है
रोम-रोम, पोर-पोर अभिव्यक्त
वास्तविक व्याख्याओं से