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मैं तुम्हें पचा लूँ / रामगोपाल 'रुद्र'

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मैं तुम्हें पचा लूँ अपने में, कुछ ऐसे!

जैसे रचते हैं फूल, गोदकर गात;
सिल बनती बुत, सहकर छेनी के घात;
बुलबुल के गुँथे कलेजे का अनुराग
रच देता है टहटह गुलाब के पात;
मैं तुम्हें रचा लूँ अपने में कुछ ऐसे!

बादल के पत्‍तों में बिजली की आँच;
दीपित हो जैसे शीशमहल का काँच;
लहरों में झंकृत पूनों का संगीत;
दीया बुझने के पहले, लौ का नाच;
मैं तुम्हें नचा लूँ अपने में कुछ ऐसे!