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मैं तुम्हें प्यार नहीं कर सकती / उषा उपाध्याय

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मैं पल में नहीं जीती हूँ
और इसीलिए
उमड़ती नदी की तरह
मैं तुम्हें प्यार नहीं कर सकती,

ऐसा नहीं है कि
मेरे पाँव मिट्टी के बने है
जो तुम तक पहुँचने से पहले ही
गल जाते है;

पर मैं जीती हूँ
पल में नहीं, सदियों में
इसलिए जब मेरे पाँव
तुम्हारी और बढ़ते हैं तब
मेरे क़दमों को रोक लेती है
निविड़ अरण्य में
धोखे से, अपने ही स्वजन द्वारा
छोड़ दी गई
सगर्भा सीता की
घायल हिरनी जैसी विह्वल, प्रश्नाकुल आँखे ।

राजमहल के कमल-कोमल सुखों को
पति की ही ग़लती के कारण
छोड़ने के बावजूद भी
पति के साथ होने के अमृतमय अहसास को
सीने से लगाकर
बीहड़ जंगलों में
पति के क़दम से क़दम मिलाकर
चलनेवाली दमयंती ने

जिस पल अपने आप को
भयावह अरण्य में
पति द्वारा छोड दिया गया,
परित्यक्त पाया होगा, उस पल
उसके विद्ध, असहाय, भयाक्रान्त ह्रदय से
जो पहली चीख़ निकली होगी
उसकी गूँज से
मेरे कान सुन्न हो जाते हैं,
 
मैं जब भी कोशिश करती हूँ
तेरी धड़कनों का कोमल अहसास
अपने में समेटने की
तब सदियों के पर्दे चीरकर
भयावह जंगलों में रोती-बिलखती
अकेलेपन से घबराती
दमयंती की सिसकियाँ
घुल जाती है मेरी धड़कनों के साथ
और मैं ठंडी हो जाती हूँ,

समुद्र की उत्ताल लहरों में से
जीवन को सुकून भरे ठहराव तक पहुँचाने वाला
पितृपद का मुकाम
जिसने राजकुमार गौतम को दिया
उस आपन्नसत्त्वा यशोधरा की
वियोग-विधुर, म्लान-मुखकांति
मुझे दिए हुए तेरे सारे फूलों का रंग
उड़ा देती है,
ऐसा लगता है
जैसे मैंने क़दम उठाया है

पर जिस पर उसे ठहरा सकूँ
ऐसी ठोस धरती कहाँ ?
मैं पहचान ही नहीं पाती
मयदानव की सभा जैसे समय के
इस जल और स्थल के भेद को....

मैं हैरान हूँ
मैं चकित हूँ,
पर हाँ, मैं तुम्हारा
तिरस्कार भी नहीं कर सकती हूँ;
"ये रव यह शकुन्त!"सुनते ही
माँ के आने के अहसास से मचलकर
सिंहबाल को छोड़
उठ खड़े होनेवाले बालक की
मातृमिलनोत्सुक, मुग्ध, आतुर आँखे
मेरा दामन थाम लेती हैं,
उस बालक की आतुर नज़र का खिंचाव
मुझे जोडता रहता है
तुम से, धरती से, इस जीवन से....

मेरा एक तार, मेरे दोस्त!
तेरे साथ जुड़ा है
लेकिन फिर भी
मुझे माफ़ करना दोस्त
उमड़ती नदी की तरह
मैं तुम्हे प्यार नहीं कर सकती
क्योंकि मैं सदियों मे जीती हूँ,
पल में नहीं....
 

मूल गुजराती से अनुवाद : स्वयं कवयित्री द्वारा