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"मैं दुश्मन की छाया से लड़ रहा था / विश्वनाथ प्रताप सिंह" के अवतरणों में अंतर

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मैंने अपना दोस्त मान रखा था।
 
मैंने अपना दोस्त मान रखा था।
  
मैं अपने दोस्त का सर कांटू
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मैं अपने दोस्त का सर काटूँ
 
या उसकी छाया को
 
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दियासलाई से जला दूं।
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दियासलाई से जला दूँ।
 
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(पटना में पांच जनवरी 1987 को खादी ग्राम जाते हुए रास्ते में लिखी विश्वनाथ प्रताप सिंह की एक कविता, यह वही समय था जब वे कांग्रेस के भीतर रहकर अपनी लड़ाई लड रहे थे।)
 
(पटना में पांच जनवरी 1987 को खादी ग्राम जाते हुए रास्ते में लिखी विश्वनाथ प्रताप सिंह की एक कविता, यह वही समय था जब वे कांग्रेस के भीतर रहकर अपनी लड़ाई लड रहे थे।)

00:27, 21 अगस्त 2018 का अवतरण

कैसे भी वार करूं
उसका सर धड़ से अलग नहीं
होता था

धरती खोद डाली
पर वह दफन नहीं होता था
उसके पास जाऊं
तो मेरे ही ऊपर सवार हो जाता था
खिसिया कर दांत कांटू
तो मुंह मिट्टी से भर जाता था
उसके शरीर में लहू नहीं था
वार करते करते मैं हांफने लगा
पर उसने उफ नहीं की

तभी एकाएक पीछे से
एक अट्ठहास हुआ
मुड़ कर देखा, तब पता चला
कि अब तक मैं
अपने दुश्मन से नहीं,
उसकी छाया से लड़ रहा था
वह दुश्मन, जिसे अभी तक
मैंने अपना दोस्त मान रखा था।

मैं अपने दोस्त का सर काटूँ
या उसकी छाया को
दियासलाई से जला दूँ।

(पटना में पांच जनवरी 1987 को खादी ग्राम जाते हुए रास्ते में लिखी विश्वनाथ प्रताप सिंह की एक कविता, यह वही समय था जब वे कांग्रेस के भीतर रहकर अपनी लड़ाई लड रहे थे।)