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"मैं दुश्मन की छाया से लड़ रहा था / विश्वनाथ प्रताप सिंह" के अवतरणों में अंतर
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− | कैसे भी वार | + | कैसे भी वार करूँ |
उसका सर धड़ से अलग नहीं | उसका सर धड़ से अलग नहीं | ||
होता था | होता था | ||
धरती खोद डाली | धरती खोद डाली | ||
− | पर वह | + | पर वह दफ़न नहीं होता था |
− | उसके पास | + | उसके पास जाऊँ |
तो मेरे ही ऊपर सवार हो जाता था | तो मेरे ही ऊपर सवार हो जाता था | ||
− | खिसिया कर | + | खिसिया कर दाँत काटूँ |
− | तो | + | तो मुँह मिट्टी से भर जाता था |
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− | वार करते करते मैं | + | वार करते-करते मैं हाँफने लगा |
− | पर उसने | + | पर उसने उफ़्फ़ नहीं की |
तभी एकाएक पीछे से | तभी एकाएक पीछे से | ||
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मैंने अपना दोस्त मान रखा था। | मैंने अपना दोस्त मान रखा था। | ||
− | मैं अपने दोस्त का सर | + | मैं अपने दोस्त का सर काटूँ |
या उसकी छाया को | या उसकी छाया को | ||
− | दियासलाई से जला | + | दियासलाई से जला दूँ। |
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− | (पटना में | + | (पटना में पाँच जनवरी 1987 को खादी ग्राम जाते हुए रास्ते में लिखी विश्वनाथ प्रताप सिंह की एक कविता, यह वही समय था जब वे कांग्रेस के भीतर रहकर अपनी लड़ाई लड़ रहे थे।) |
00:30, 21 अगस्त 2018 के समय का अवतरण
कैसे भी वार करूँ
उसका सर धड़ से अलग नहीं
होता था
धरती खोद डाली
पर वह दफ़न नहीं होता था
उसके पास जाऊँ
तो मेरे ही ऊपर सवार हो जाता था
खिसिया कर दाँत काटूँ
तो मुँह मिट्टी से भर जाता था
उसके शरीर में लहू नहीं था
वार करते-करते मैं हाँफने लगा
पर उसने उफ़्फ़ नहीं की
तभी एकाएक पीछे से
एक अट्ठहास हुआ
मुड़ कर देखा, तब पता चला
कि अब तक मैं
अपने दुश्मन से नहीं,
उसकी छाया से लड़ रहा था
वह दुश्मन, जिसे अभी तक
मैंने अपना दोस्त मान रखा था।
मैं अपने दोस्त का सर काटूँ
या उसकी छाया को
दियासलाई से जला दूँ।
(पटना में पाँच जनवरी 1987 को खादी ग्राम जाते हुए रास्ते में लिखी विश्वनाथ प्रताप सिंह की एक कविता, यह वही समय था जब वे कांग्रेस के भीतर रहकर अपनी लड़ाई लड़ रहे थे।)