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मैं प्रीत निभाना क्या जानूँ / चेतन दुबे 'अनिल'

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 मैं प्रीत निभाना क्या जानूँ।

मैं तो माटी का पुतला हूँ,
माटी में ही मिल जाऊँगा।
जब दर्द दिया है विधना ने,
दर्द के गीत ही गाऊँगा।
कोई भी मिला नहीं मुझको-
जिसको जग में अपना मानूँ।
मैं प्रीत निभाना क्या जानूँ।।

तुम आई , दो पग साथ चली,
खुद ही तुमने मुख मोड़ लिया।
अपना कहकर भी प्राण मुझे,
गैरों से नाता जोड़ लिया।
आँखों की ज्योति हुई मद्धिम-
अब कैसे तुझको पहचानूँ?
मैं प्रीत निभाना क्या जानूँ ।

विश्वासों ने लूटा मुझको,
आशा आँसू में बदल गई ।
तब दिल में हाहाकार मचा,
अंतर की पीड़ा दहल गई।
जब तुमने ही मुख मोड़ लिया-
तब प्रणय हेतु जिद क्या ठानूँ।
मैं प्रीत निभाना क्या जानूँ।