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मोनालिसा की आँखें (कविता) / सुमन केशरी

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आज देख रही हूँ
मोनालिसा....
जब वहाँ थी तो जाने कहाँ थी
ठण्ड में
चिड़चिड़ाहट में
पाँवों की सूजन में
अगली सुबह की तैयारियों में...
न जाने कहाँ थी, जब मैं वहाँ थी
आज खड़ी हूँ सागर को पीठ दिए
गंडोला निहारती
घरों की दीवारें हाथों के दायरे में लिए
और अब
वेनिस के विशाल चर्च के प्राँगण में
खड़ी हूँ
जन-सागर में अकेली
मोनालिसा की वीरान आँखें
न जाने क्या खोजतीं
लगातार पिछुआ रही हैं
मुस्काती
आखिर उसी का अंश ही तो हूँ मैं भी
यहाँ से वहाँ तक निगाहों से पृथ्वी नापती
मुझे देखती हैं
मोनालिसा की आँखें..