भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मोर संग चलव रे / लक्ष्मण मस्तुरिया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ओ गिरे थके हपटे मन
अऊ परे डरे मनखे मन
मोर संग चलव रे

अमरैया कस जुड छांव मै
मोर संग बईठ जुडालव
पानी पिलव मै सागर अव
दुःख पीरा बिसरालव
नवा जोत लव नव गाँव बर
रस्ता नवा गढव रे

मोर संग चलव रे

मै लहरी अव
मोर लहर मा
फरव फूलो हरियावअ
महानदी मै अरपा पैरी
तन मन धो हरियालव
कहाँ जाहु बड दूर हे गँगा

मोर संग चलव रे

दीपक संग जूझे बर भाई
मै बाना बांधे हव
सरग ला पृथ्वी मा ला देहूं
प्रण अइसन ठाने हव
मोर सिमट के सरग निसइनी
जुर मिल सबव चढ़व रे

मोर संग चलव रे