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मौत से हो कि न हो, खुद से हिरासां है बहुत / रमेश तन्हा

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मौत से हो कि न हो, खुद से हिरासां है बहुत
ज़िन्दगी बोझ से अपने ही परेशां है बहुत।

खाली लम्हों को तिरी याद से भर देती है
मेरी तन्हाई का मुझ पर यही एहसां है बहुत।

अपने साये से अलग हो के कभी मैं खुद को
सोच पाया तो नहीं हूँ, मगर अरमां है बहुत।

मुझे हर चेहरे पे इक चेहरा नज़र आता है
मेरे अहसास का सूरज कि द्रखशां है बहुत।

किन उड़ानों की तलब जाग उठी ये मुझ में
किस उफुक़ के लिए दिल मेरा पर-अफशां है बहुत।

पीठ पर अपनी, हवा बांध के निकला हूँ मैं,
सफ़र आफाक का कहते हैं कि पेचां है बहुत।

मेरी तखईल की परवाज़ भी रह जाती है
मेरे ख्वाबों का परिंदा भी तो पर्रा है बहुत।

तोड़ देती है हवा बर्गे-तरो-ताज़ा भी
शाखे-नौरुस्ता इसी सोच से लरजां है बहुत।

दीदा-वर कैसे हुआ आंख झपकने वाला
आइना, देख के इंसान को, हैरां है बहुत।

भूल से भूल का एहसास बड़ा होता है
एक भी अश्के-नदामत सरे-मिजगां है बहुत।

आंख फिर सिदको-सफ़ा ने सरे-जिन्दां खोली
अपने किरदार पे फिर कोई पशेमां है बहुत।

तेरे काकुल तिरी आंखें तिरे आरिज़ तिरे लब
मेरे जीने, मिरे मरने को ये सामां है बहुत।

न हुआ, पर न हुआ, ज़ात से अपनी वाकिफ़
यूँ तो हर बात का 'तन्हा' तुझे इरफां है बहुत।