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यह यक़ीन करना कितना मुश्किल है / वाल्झीना मोर्त / कुणाल सिंह

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यह यक़ीन करना कितना मुश्किल है
कि आज हम जितने हैं
कभी इससे भी कमसिन हुआ करते थे
कि हमारी खाल इतनी पारदर्शी हुआ करती थी
कि नसों शिराओं की नीली स्याही झाँकती थी उससे होकर
जैसे स्कूल की कॉपियों के ज़र्द पन्ने पे खिंची हों नीली लाइनें

कि यह दुनिया एक यतीम कुत्ते की मानिन्द थी
जो छुट्टी के बाद हमारे साथ खेला करता था
और हम सोचते थे कि एक दिन इसे हम अपने घरों में ले जाएँगे
हम ले जाते, इससे पेश्तर कोई और बाज़ी मार ले गया
उसे एक नाम दिया
प्रशिक्षित किया कि अजनबियों को देखो तो भौंको
और अब हम भी अजनबियों के घेरे में आते थे

और इसी वजह से देर रात हम जाग पड़ते
और अपनी टीवी सेट की मोमबत्तियों को जला देते
और उनकी गर्म रौशनी की आँच में हमने पहचानना सीखा
चेहरों और शहरों को
और सुबहिया हिम्मत से लैश होकर
फ्राइँग पैन से उतार फेंकना सीखा आमलेट को

लेकिन हमारा कुत्ता किसी और के फीते से बँधा बड़ा होता रहा
और हमारी माँओं ने अचानक हमें मर्दों के साथ सोने
और आज की तारीख़ में देखने से मना कर दिया

किसी बेदाग़ कल्पना में खोने की सोचना कितना आसान होता है।