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ये आँसू रोक रक्खे हैं, बमुश्किल दिन गुज़ारे हैं / देवेश दीक्षित 'देव'
Kavita Kosh से
ये आँसू रोक रक्खे हैं, बमुश्किल दिन गुज़ारे हैं
तुम्हें दिखते नहीं हैं जो, सभी वो ग़म तुम्हारे हैं
खुली ज़ुल्फें,हँसी चेहरा,तुम्हारी झील-सी आँखें
हमें पागल न कर दें ये,बहुत दिलकश नज़ारे हैं
हमारी उँगलियों से आज तक खुशबू नहीं जाती
किसी के रेशमी गेसू कभी इतने सँवारे हैं
किसे विश्वास होगा हम मिलन-तट छू नहीं पाये
रहे नज़दीक यूँ जैसे नदी के दो किनारे हैं
मुहाज़िर हो गया हूँ 'देव' कुछ मजबूरियों ख़ातिर
जवाँ होने लगे बच्चे बहुत खर्चे हमारे हैं