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ये खेल भूल-भुलय्याँ में हम ने खेला भी / मज़हर इमाम
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ये खेल भूल-भुलय्याँ में हम ने खेला भी
तिरी तलाश भी की और ख़ुद को ढ़ूड़ भी
मिरा नसीब थी हमवार रास्ते की थकन
मिरा हरीफ़ पहाड़ो पे चढ़ के उतरा भी
ये आरज़ू थी कि यक-रंग हो के जी लेता
मगर वो आँख जो शैताँ भी है फ़रिश्ता भी
समुंदरों से गुहर कब के हो गए नापैद
भँवर के साथ मैं गहराइयों में उतरा भी
बरहनगी पे भी गुज़रा क़बा-ए-ज़र का गुमाँ
लिबास पर हुआ जुज़्व-ए-बदन का धोका भी
गरजने वाले बरसते नहीं ये सूनते थे
गुज़िश्ता रात वो गिरजा भी और बरसा भी