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यों ही जीवन के बीते कितने संवत्सर / प्रथम खंड / गुलाब खंडेलवाल

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यों ही जीवन के बीते कितने संवत्सर
चढ़ ज्वार प्रेम का चोटी तक, फिर गया उतर
हिम-ताप-विकल पावस कितने दृग से झर-झर
पथ के प्रवाह को मृदुल कठिनताओं से भर
आ-आकर चले गये भी
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संध्या-वंदन को गये त्वरित मुनि छोड़ शयन
पनघट पर अटपट पहुँच अहल्या चकित-नयन
घट पर से बहते जल में असफल मीन-चयन
बन गयी सहज जय-ध्वजा मयन की ज्योति-अयन
मुक्तालक-जित घनमाला
 
खोयी-खोयी-सी चिर निरर्थ-मन, यहाँ-वहाँ
लौटी कुटीर में शेष त्रियामा निशा जहाँ
'छल आज उषा का! मुनि कैसे चल दिए? कहाँ?'
मलयज ने कानों से लगकर कुछ मौन कहा
थर-थर काँपी वह बाला
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यह कौन कक्ष में पूनो शशि-सा मंदस्मित
धकधक करता था हृदय, चेतना तमसावृत
'ऋषि लौटे निशि-भ्रम जान कि प्रिय प्राणों में स्थित?
कटंकित, अपरिचित नि:श्वासों से आकर्षित
सर्वांग शिथिल, भय-कातर
 
अवसन्न गौतमी, झलका ज्यों दव-सा समक्ष
'यह इंद्रजाल रच रहा कौन गन्धर्व, यक्ष?
फूले फेनिल जलनिधि-सा उठ-उठ मुकुर-वक्ष
द्रुत गिरा, मृगी-सी चौंक, चकित सहसा अलक्ष
सकुची सुन प्रेमभरे स्वर
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सुरपति यह जिसने पति-अनुकृति धर ली अनूप
पाटल-विकीर्ण पथ नहीं, अतल चिर-अंध-कूप'
कानों से लग बोले दृग-मधुकर, दंश-रूप
आया कुसुमित शर ले अरूप वह बाल-भूप
बह चली वायु अनुकूला
 
सुगठित भुज-पट्ट, कपाट-वक्ष, हिम-गौर स्कंध
तनु तरुण भानु-सा अरुण, स्रस्त-तूणीर-बंध
दृढ जटा-मुकुट-शिर, कटि-तट मुनि-पट धरे, अंध
प्रेमी के छल पर सलज, विहँस, उन्मद, सगंध
उर-सुमन प्रिया का फूला
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