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"रहस्य / श्रीनिवास श्रीकांत" के अवतरणों में अंतर

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देह
 
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एक घना लैण्डस्केप
 
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घाटियों की पेचदार सलवटों में  
 
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सुविस्तृत
 
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है, पर दिखायी नहीं देता
 
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इसी में हैं झीलें भी
 
इसी में हैं झीलें भी
 
 
शान्त और छलछलातीं
 
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मानसरोवर/सबसे बड़ी
 
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सर्वोच्च
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कैलाश के आँचल में
 
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शीतल, अतिशीतल, अनगाही
 
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पुदागल के झरने भी हैं यहाँ
 
पुदागल के झरने भी हैं यहाँ
 
 
हजारों हजार आबशारों की तरह
 
हजारों हजार आबशारों की तरह
 
 
बहती हैं नदियाँ
 
बहती हैं नदियाँ
 
 
रस की, रक्त की, द्रव की
 
रस की, रक्त की, द्रव की
 
 
नाडिय़ों में बहता रहता
 
नाडिय़ों में बहता रहता
 
 
जीवक  जल  
 
जीवक  जल  
 
  
 
इनमें है बला की अनुगूँज
 
इनमें है बला की अनुगूँज
 
 
पहाड़ी नदी की तरह
 
पहाड़ी नदी की तरह
 
 
चट्टानों पर खलखल करती नदी
 
चट्टानों पर खलखल करती नदी
 
 
खल-खल करता रक्त
 
खल-खल करता रक्त
 
 
और उसके साथ धड़कता हृदय
 
और उसके साथ धड़कता हृदय
 
 
जिससे सिंचित होते
 
जिससे सिंचित होते
 
 
घाटियों में फैले
 
घाटियों में फैले
 
 
चेतना के उर्वर खेत
 
चेतना के उर्वर खेत
 
 
मौसम यहाँ आते
 
मौसम यहाँ आते
 
 
अणु की वरिमाओं में रूहपोश
 
अणु की वरिमाओं में रूहपोश
 
 
शंक्वाकार पर्वत से उतरते
 
शंक्वाकार पर्वत से उतरते
 
 
और हो जाते दिककाल की
 
और हो जाते दिककाल की
 
 
रेत में विलीन
 
रेत में विलीन
 
 
यह है देह  
 
यह है देह  
 
 
एक बड़े साम्राज्य का दुर्ग
 
एक बड़े साम्राज्य का दुर्ग
 
 
जिसमें इन्द्रियों सहित
 
जिसमें इन्द्रियों सहित
 
 
गर्व करता है आदमी
 
गर्व करता है आदमी
 
 
चित्त है जहाँ राजा
 
चित्त है जहाँ राजा
 
 
माया को घुमाता घुमटी सा
 
माया को घुमाता घुमटी सा
 
 
एक चलता फिरता जलधर है इसके पास
 
एक चलता फिरता जलधर है इसके पास
 
 
सींचता इच्छाओं को
 
सींचता इच्छाओं को
 
 
मृत्यु दूर द्वार पर खड़ी  
 
मृत्यु दूर द्वार पर खड़ी  
 
 
देखती रहती टुकुर-टुकुर
 
देखती रहती टुकुर-टुकुर
 
 
ब्रह्माकण्ड का यह करिश्मा
 
ब्रह्माकण्ड का यह करिश्मा
 
 
हर कोष है
 
हर कोष है
 
 
इस सल्तनत का परिन्दा
 
इस सल्तनत का परिन्दा
 
 
अपना कर्तव्य बराबर निभाता
 
अपना कर्तव्य बराबर निभाता
 
 
आता जब काल
 
आता जब काल
 
 
अपने वाहन पर सवार
 
अपने वाहन पर सवार
 
 
हर कोशिका को होता आदेश
 
हर कोशिका को होता आदेश
 
 
ऊपर से नीचे तक
 
ऊपर से नीचे तक
 
 
फैलने लगती
 
फैलने लगती
 
 
मृत्यु की ज़हरीली धूलि
 
मृत्यु की ज़हरीली धूलि
 
 
ढंक लेती पूरा प्रान्तर
 
ढंक लेती पूरा प्रान्तर
 
 
शव हो जाती है देह
 
शव हो जाती है देह
 
 
पुंगल में जज़्ब होती आत्मा
 
पुंगल में जज़्ब होती आत्मा
 
 
एक नदी होती हो
 
एक नदी होती हो
 
 
ज्यों रेत में विलीन
 
ज्यों रेत में विलीन
 
  
 
दूर अनन्त का समुद्र
 
दूर अनन्त का समुद्र
 
 
मथित होता रहता
 
मथित होता रहता
 
 
अपने पानी
 
अपने पानी
 
 
अपने तट
 
अपने तट
 
 
और अपने जलजीवों के साथ
 
और अपने जलजीवों के साथ
 
 
मृत्यु से बेबाक।
 
मृत्यु से बेबाक।
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02:20, 13 जनवरी 2009 का अवतरण

देह
एक घना लैण्डस्केप
घाटियों की पेचदार सलवटों में
सुविस्तृत
है, पर दिखायी नहीं देता

इसी में हैं झीलें भी
शान्त और छलछलातीं
मानसरोवर/सबसे बड़ी
सर्वोच्च
कैलाश के आँचल में
शीतल, अतिशीतल, अनगाही

पुदागल के झरने भी हैं यहाँ
हजारों हजार आबशारों की तरह
बहती हैं नदियाँ
रस की, रक्त की, द्रव की
नाडिय़ों में बहता रहता
जीवक जल

इनमें है बला की अनुगूँज
पहाड़ी नदी की तरह
चट्टानों पर खलखल करती नदी
खल-खल करता रक्त
और उसके साथ धड़कता हृदय
जिससे सिंचित होते
घाटियों में फैले
चेतना के उर्वर खेत
मौसम यहाँ आते
अणु की वरिमाओं में रूहपोश
शंक्वाकार पर्वत से उतरते
और हो जाते दिककाल की
रेत में विलीन
यह है देह
एक बड़े साम्राज्य का दुर्ग
जिसमें इन्द्रियों सहित
गर्व करता है आदमी
चित्त है जहाँ राजा
माया को घुमाता घुमटी सा
एक चलता फिरता जलधर है इसके पास
सींचता इच्छाओं को
मृत्यु दूर द्वार पर खड़ी
देखती रहती टुकुर-टुकुर
ब्रह्माकण्ड का यह करिश्मा
हर कोष है
इस सल्तनत का परिन्दा
अपना कर्तव्य बराबर निभाता
आता जब काल
अपने वाहन पर सवार
हर कोशिका को होता आदेश
ऊपर से नीचे तक
फैलने लगती
मृत्यु की ज़हरीली धूलि
ढंक लेती पूरा प्रान्तर
शव हो जाती है देह
पुंगल में जज़्ब होती आत्मा
एक नदी होती हो
ज्यों रेत में विलीन

दूर अनन्त का समुद्र
मथित होता रहता
अपने पानी
अपने तट
और अपने जलजीवों के साथ
मृत्यु से बेबाक।