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रात पर्दे से ज़रा मुहँ जो किसू का निकला़ / ग़ुलाम हमदानी 'मुसहफ़ी'

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रात पर्दे से ज़रा मुहँ जो किसू का निकला
शोला समझता था उसे मैं पे भभूका निकला

महर ओ मह उस की फबन देख के हैरान रहे
जब वरक़ यार की तस्वीर-ए-दो-रू का निकला

ये अदा देख के कितनों का हुआ काम तमाम
नीमचा कल जो टुक उस अरबदा-जू का निकला

मर गई सर्व पे जब हो के तस्ददुक़ क़ुमरी
उस से उस दम भी न तौक़ अपने गुलू का निकला

‘मुसहफ़ी’ हम तो ये समझते थे के होगा कोई ज़ख़्म
तेरे दिल में तो बहुत काम रफ़ू का निकला