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रात यादों के राहज़न आकर हिज्र के कारवाँ को लूट गये / ज़ाहिद अबरोल

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रात यादों के राहज़न आ कर, हिज़्र के कारवां को लूट गए और पल भर में यास.ओ.ग़म के सभी, आइने चरमरा के टूट गए

वो उमीदों के आइने जिन पर, पत्थरों का असर न होता था आज उन पर किसी की आंखों से, एक आंसू गिरा वो फूट गए

हम ने इन ख़ारिजी शिकस्तों से, ख़ुद को महफ़ूज़ रखना सीखा था हम मगर जब संभल संभल के चले, अपने अंदर कहीं से टूट गए

मुझसे मिलता तो ख़ैर क्या उन को, कुछ न कुछ दे के ही गए हैं वो यह तो मैं यूं ही कहता फिरता हूं, लोग मुझ सादःदिल को लूट गए

यास, उम्मीद और चाहत के, ग़म, ख़ुशी, दर्द और मुहब्बत के ज़िन्दगी के सफ़र में ऐ “ज़ाहिद”, कितने ही साथ थे जो छूट गए

शब्दार्थ
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