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राहे तलब में कब से यूँ बैठा हुआ हूँ मैं / अजय अज्ञात

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राहे तलब में कब से यूँ बैठा हुआ हूँ मैं
आ कर कोई समेट ले बिखरा हुआ हूँ मैं

सैयाद बन के वक़्त ने है क़ैद कर दिया
चुपचाप एक कोने में सिमटा हुआ हूँ मैं

देखा जो मैंने आईना मालूम ये हुआ
इक ख़ूबरू जवान से बूढ़ा हुआ हूँ मैं

कैसे बुझा सकूँगा समंदर की प्यास को
कतरे उधार माँग के दर्या हुआ हूँ मैं

‘अज्ञात’ मुझ से काश मुलाकात हो मेरी
मुद्दत से अपने आप से बिछड़ा हुआ हूँ मैं