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राह-ए-सफ़र से जैसे कोई हमसफ़र गया / कृश्न कुमार 'तूर'
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राह-ए-सफ़र से जैसे कोई हमसफ़र गया
साया बदन की क़ैद से निकला तो मर गया
ताबीर जाने कौन से सपने की सच हुई
इक चाँद आज शाम ढले मेरे घर गया
थी गर्मी—ए—लहू की उम्मीद ऐसे शख़्स से
इक बर्फ़ की जो सिल मेरे पहलू में धर गया
है छाप उसके रब्त की हर एक शे`र पर
वो तो मेरे ख़याल की तह में उतर गया
इन्सान बस ये कहिए कि इक ज़िन्दा लाश है
हर चीज़ मर गई अगर एहसास मर गया
इस ख़्वाहिश-ए-बदन ने न रक्खा कहीं का `तूर' !
इक साया मेरे साथ चला मैं जिधर गया.