भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रिश्तों को टूटने से बचाया न जा सका / रवि ज़िया

Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:59, 28 फ़रवरी 2024 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रवि ज़िया |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGhazal...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रिश्तों को टूटने से बचाया न जा सका
लेकिन ये सच ज़बान पे लाया न जा सका

गुज़री तमाम उम्र उसी की पनाह में
इक घर जो असलियत में बनाया न जा सका

ख़ामोश पत्थरों की सदाएँ अजीब थी
तेशा फिर उस के बाद उठाया न जा सका

कहने को हम भी शहर में आबाद हो गये
इक दश्त फिर भी दिल से भुलाया न जा सका

अहदे-सफ़र में वक़्त बहुत महरबाँ रहा
अफ़सोस तेरे साथ बिताया न जा सका

कोई समझ न पाया 'ज़िया' तिश्नगी तेरी
वो प्यास क्या थी जिस को बुझाया न जा सका