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रिश्तों को मुट्ठियों की ज़दों में छुपा लिया / महेश कटारे सुगम
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रिश्तों को मुट्ठियों की ज़दों में छुपा लिया ।
सच को हथेलियों की ज़मीं पर उगा लिया ।
कोई कहीं न देख ले ऊँचाइयों का सच,
बत्ती बुझा के रेशमी पर्दा गिरा लिया ।
मेरी नज़र में लोग सभी बेईमान थे,
उनकी नज़र से मैंने तो ख़ुद को बचा लिया ।
केक का पर्वत बना रक्खा था सामने,
चाकू से उसे काट के काँटे से खा लिया ।
बदला हुआ रुख देख के पक्का हुआ यक़ीन,
कुछ क़ीमती ज़रूर था जो उसने पा लिया ।
मंज़िल पड़ी थी सामने पैरों के पास ही,
झुक के सुगम ने हाथ से उसको उठा लिया ।