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रेल के मुसाफ़िर से जैसे कोई इस्टेशन पीछे छूट जाता है / ज़ाहिद अबरोल

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रेल के मुसाफ़िर से, जैसे कोई इस्टेशन, पीछे छूट जाता है
यूं मिरे ख़यालों में, एक धुंधला धुंधला सा, चेहरः मुस्कराता है

उम्र से तो अब तक भी, रेत के घरौंदों की, आ रही है बू लेकिन
दिल का हाल देखें तो, इक ज़ईफ़ जंगल का, नक़्शः याद आता है

रात बंद पलकों पर, आंसुओं के कुछ क़तरे, इस तरह लरज़ते थे
मां के नर्म सीने से, बिछुड़ता हुआ बच्चा,जैसे छटपटाता है

अब भी रात को अकसर, दर्द का कफ़न ओढ़े, माहिये की धुन सुनकर
बाज़ुओं के घेरे में, सो रहा बदन कोई, कांप कांप जाता है

दिल की बात से कह दो, चम्पई फ़ज़ाओं में, गीत बन के उड़ जाए
शोर के समुन्दर में, ख़ामुशी का सहरा तो, डूबता ही जाता है

तेरी याद की इस्मत, इक ग़रीब की बेटी, और ग़म ज़माने के
जैसे कोई शहज़ादः, अपने गांव की इज़्ज़त, नोच नोच खाता है

रोज़ रात को “ज़ाहिद”, नींद एक कोने में, जा के बैठ जाती है
और मेरी आंखों में, ‘इंद्र’ देवता आ कर, बिरह-गीत गाता है

शब्दार्थ
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