भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रोने में इक ख़तरा है तालाब नदी हो जाते हैं / मुनव्वर राना
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:20, 9 जून 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} रचनाकारः मुनव्वर राना Category:कविताएँ Category:मुनव्वर राना ~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~...)
रचनाकारः मुनव्वर राना
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
रोने में इक ख़तरा है तालाब नदी हो जाते हैं
हंसना भी आसान नहीं है लब ज़ख़्मी हो जाते हैं
इस्टेसन से वापस आकर बूढ़ी आँखें सोचती हैं
पत्ते देहाती रहते हैं फल शहरी हो जाते हैं
बोझ उठाना शौक कहाँ है मजबूरी का सौदा है
रहते - रहते इस्टेशन पर लोग कुली हो जाते हैं
सबसे हंसकर मिलिये-जुलिये लेकिन इतना ध्यान रहे
सबसे हंसकर मिलने वाले रुसवा भी हो जाते हैं
अपनी अना को बेच के अक्सर लुक़्म-ए-तर की चाहत में
कैसे-कैसे सच्चे शाइर दरबारी हो जाते हैं