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लक्ष्य संधान / सुरेश ऋतुपर्ण

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बार-बार कहा गुरु ने —
वत्स !
उठाओ धनुष
चढ़ाओ प्रत्यंचा
करो लक्ष्य संधान
छोड़ो कसकर बाण

बार-बार पूछता है शिष्य —
लक्ष्य कहाँ है?
नहीं दीखती
वृक्ष पर रखी चिड़िया की आँख ।

हँस कर कहता है गुरु —
यही तो है परीक्षा
दीखता, तो अब तक
मैं ही न कर चुका होता
लक्ष्य-संधान !