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लगता है मेरी आँखों ने फिर से धोखा खाया है।
मुंसिफ़ ने मुल्ज़िम को इतना क्यों नज़दीक बुलाया है?
नावाक़िफ़ अंजाम से था दिल, उनसे मुहब्बत कर बैठा,
जिन बेरहम निगाहों ने दिल मेरा ख़ूब रुलाया है।
बिजली-बादल, धूप-हवा तो गाँव सरीखे शहर में पर,
सुब्हो-शाम बदलते मंज़र जिन से दिल घबराया है।
खोना और पाना जीवन भर चलता है, मालूम मगर,
कौन हिसाब इसका रख पाया क्या खोया क्या पाया है?
 
यह कैसी बदरंग उदासी मन पर जो अंकुश रक्खे,
यह कैसा डर मेरे सर पर हर पल जिसका साया है?
 
दिल पर मेरा ज़ोर नहीं जो आप को हर पल याद करे,
‘अपनी खोज करूं दुनिया में’ आप ने क्या फ़रमाया है?
 
मुझको यह तौफ़ीक मिली, मैं राहे-अदब पर चल बैठा,
‘नूर’ मगर तुमसे मिलने का मैंने ख़्वाब सजाया है।
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