भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लड़कियां / मनीषा शुक्ला

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लड़कियांअच्छा-बुरा, लिखने लगीं हैं

देखकर अपनी लकीरें, नियति को पहचानती हैं
कुछ ग़लत होने से पहले, कुछ ग़लत कब मानती हैं?
ढूढंने को रंग, भरकर कोर में आकाश सारा
उड़ चली हैं, तितलियों के सब ठिकाने जानती हैं
रात की नींदे उड़ा, लिखने लगीं हैं

अब नहीं बनना-संवरना चाहती हैं लड़कियां ये
अब नहीं सौगंध भरना चाहती हैं लड़कियां ये
मांग कर पुरुषत्व से कोरा समर्पण नेह का, बस
प्रेम में इक बार पड़ना चाहती हैं लड़कियां ये
आंख से काजल चुरा, लिखने लगीं हैं

अब यही बदलाव इनका, जग हज़म करने लगा है
उत्तरों का भान ही तो प्रश्न कम करने लगा हैं
देखकर विश्वास इनका, डर चुकीं हैं मान्यताएं
अब इन्हें स्वीकार जग का हर नियम करने लगा है
भाग्य में कुछ खुरदुरा, लिखने लगीं है