भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लड़खड़ाने लगी बाग में हवा / राकेश खंडेलवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आप की देह की गंध पी है जरा
लड़खड़ाने लगी बाग में ये हवा

कर रही थी चहलकदमियाँ ये अभी
लग पड़ी गाल पर ज़ुल्फ़ को छेड़ने
चूमने लग गई इक कली के अधर
लाज के पट लगी पाँव से भेड़ने
ओस से सद्यस्नाता निखरती हुई
दूब को सहसा झूला झुलाने लगी
थी अभी होंठ पर उँगलियों को रखे
फिर अभी झूम कर गुनगुनाने लगी

फूल का‌टों से रह रह लगे पूछने
कुछ पता ? आज इसको भला क्या हुआ

फुनगियों पर चढ़ी थी पतंगें बनी
फिर उतर लग गई पत्तियों के गले
बात की इक गिलहरी से रूक दो घड़ी
फिर छुपी जा बतख के परों के तले
तैरने लग पड़ी होड़ लहरों से कर
झील में थाम कर नाव के पाल को
घूँघटों की झिरी में लगी झाँकने
फिर उड़ाने लगी केश के शाल को

डूब आकंठ मद में हुई मस्त है
कर न पाये असर अब कोई भी दवा

ये गनीमत है चूमे अधर थे नहीं
आपको थाम कर अपने भुजपाश में
वरना गुल जो खिलाते, भला क्या कहें
घोल मदहोशियाँ अपनी हर साँस में
सैकड़ों मयकदों के उँड़ेले हुए
मधुकलश के नशे एक ही स्पर्श में
भूलती हर डगर, हर नगर हर दिशा
खोई रहती संजोये हुए हर्ष में

और संभव है फिर आपसे पूछती
कौन है ये सबा? कौन है ये हवा ?