भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
लहूलुहान हुई है ये जिंदगी देखो / त्रिपुरारि कुमार शर्मा
Kavita Kosh से
Tripurari Kumar Sharma (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:28, 25 मई 2011 का अवतरण
लहूलुहान हुई है ये जिंदगी देखो
ज़रा-सी तुम मेरे ज़ख्मों की ताजगी देखो
कहीं पे सिर्फ़ दो लाशों के लिए ताजमहल
कहीं पे सैकडों लोगों की मुफलिसी देखो
बहार कैसी है कैसा है बाग़बा देखो
चमन में झूमते फूलों की खुदकशी देखो
मकान बन गए हैं फिर यहाँ पे घर सारे
जनाब टूटते रिश्तों में दिलकशी देखो
न जाने कब से ये चलती हैं कागजी बातें
मैं चाहता हूँ कि तुम आज सत्य भी देखो
सही-ग़लत को परख तो रहा है वो लेकिन
तुम उसके द्वार की कम होती रौशनी देखो