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लियाक़त रब सभी को ये समझने की नहीं देता / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'

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लियाक़त रब सभी को ये समझने की नहीं देता
किसे देता है क्या, कैसे, किसे कुछ भी नहीं देता।

किसी को फूल या कांटे वो बांटे अपनी मर्ज़ी से
सभी को एक सा क़द एक सी काठी नहीं देता।

निज़ाम अपना बना रक्खा अज़ीमुश्शान है उसने
बिना वो अपनी मर्ज़ी हिलने पत्ता तक नहीं देता।

नहीं अचरज, किसी के सामने दरिया बहा दे वो
किसी की प्यास की ख़ातिर वो क़तरा भी नहीं देता।

कहा वाइज़ ने कल, नज़रों में उसकी सब बराबर है
मगर कुछ को ख़ज़ाना, कुछ को वो कौड़ी नहीं देता।

गऊ को अगली रोटी श्वान को पिछली मिले हर दिन
मुक़द्दर में हर इक आंगन के ये नेकी नहीं देता।

न चाहे ख़्वाब में भी जो पराया धन, खुदा उसकी
भँवर-तूफ़ान में भी डूबने कश्ती नहीं देता।

पते की बात अय 'विश्वास' मेरी गौर से सुनिये
ख़ुदा नाखुश हो जिनसे उनके घर बेटी नहीं देता।