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लोहे के चने / राम सेंगर

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कविता में जगह बनाना —
लोहे के चने चबाना ।

लिखने की प्रविधि मेंढकी है
कूदे-फुदके आए न हाथ ।
हम कथ्यरूप को भाषा में
बुनना समझे हैं दाल-भात ।

बुनकर न कबीर हुआ कोई
काहे का होना-जाना ।

अनुभूति न द्योतित हो पाए
इस शब्दहीनता से हारे ।
सुनियोजन की समस्वरता में
हैं दीख रहे दिन में तारे ।

कविमानस है या अन्धकूप —
मुश्किल है यह समझाना ।

जीने-मरने के दशाबिम्ब
गढ़ते रहते रफ़्ता-रफ़्ता ।
ज़ज़्बे का प्रामाणिक होना
हम क्या जानें कुछ नहीं पता ।

गुर-छल सब आत्मसजगता के
पाठक जानें अर्थाना ।

सर्जनाभूमि जैसी भी हो
गालों में बेशक़ बजे न ड्रम ।
दुख मनोग्रंथियों के कीले
पाला न सुकवि होने का भ्रम ।

कलई सब अपनी खुली हुई
जाने सद्बुद्ध ज़माना ।

संघर्षचेतना की लय में
सन्तुलन राग सम्वेदन के ।
मन में छत्ता मधुमक्खी का
भन-भनन योग मणिकञ्चन के ।

हालत अद्वन्द्व की बनी नहीं
जो फूटा वही तराना ।

जीवन-व्यवहार और रचना
साधना--लक्ष्य संसारी के ।
जब एक सधे दूजा छूटे
हासिल हैं ये सिरमारी के ।

पागल होने से अच्छा है
लिखते-लिखते मर जाना ।