"लौ-ए-दिल जला दूँ क्या / जॉन एलिया" के अवतरणों में अंतर
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+ | मैं तुम्हारे हर ख़त को लौह-ए-दिल समझता हूँ ! | ||
+ | लौह-ए-दिल जला दूं क्या ? | ||
+ | जो भी सत्र है इनकी, कहकशां है रिश्तों की | ||
+ | कहकशां लुटा दूँ क्या ? | ||
+ | जो भी हर्फ़ है इनका, नक्श-ए-जान है जनानां | ||
+ | नक्श-ए-जान मिटा दूँ क्या ? | ||
+ | है सवाद-ए-बीनाई, इनका जो भी नुक्ता है | ||
+ | मैं उसे गंवा दूँ क्या ? | ||
+ | लौह-ए-दिल जला दूँ क्या ? | ||
+ | नक्श-ए-जान मिटा दूँ क्या ? | ||
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+ | मुझको लिख के ख़त जानम | ||
अपने ध्यान में शायद | अपने ध्यान में शायद | ||
− | + | ख्वाब ख्वाब ज़ज्बों के | |
− | + | ख्वाब ख्वाब लम्हों में | |
− | यूँ ही | + | यूँ ही बेख्यालाना |
− | और | + | जुर्म कर गयी हो तुम |
− | + | और ख्याल आने पर | |
− | जुर्म के | + | उस से डर गयी हो तुम |
− | गर ये ख़त लिखे तुमने | + | |
− | फिर तो मेरी राय में | + | जुर्म के तसव्वुर में |
− | जुर्म ही किये तुमने | + | गर ये ख़त लिखे तुमने |
− | जुर्म | + | फिर तो मेरी राय में |
− | + | जुर्म ही किये तुमने | |
− | ख़त ही | + | |
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+ | जुर्म क्यूँ किये जाएँ ? | ||
+ | ख़त ही क्यूँ लिखे जाएँ ? | ||
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09:53, 28 जुलाई 2011 का अवतरण
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फारेहा निगारिना, तुमने मुझको लिखा है
"मेरे ख़त जला दीजे !
मुझको फ़िक्र रहती है !
आप उन्हें गँवा दीजे !
आपका कोई साथी, देख ले तो क्या होगा !
देखिये! मैं कहती हूँ ! ये बहुत बुरा होगा !"
मैं भी कुछ कहूँ तुमसे,
फारेहा निगारिना
ए बनाजुकी मीना
इत्र बेज नसरीना
रश्क-ए-सर्ब-ए-सिरमीना
मैं तुम्हारे हर ख़त को लौह-ए-दिल समझता हूँ !
लौह-ए-दिल जला दूं क्या ?
जो भी सत्र है इनकी, कहकशां है रिश्तों की
कहकशां लुटा दूँ क्या ?
जो भी हर्फ़ है इनका, नक्श-ए-जान है जनानां
नक्श-ए-जान मिटा दूँ क्या ?
है सवाद-ए-बीनाई, इनका जो भी नुक्ता है
मैं उसे गंवा दूँ क्या ?
लौह-ए-दिल जला दूँ क्या ?
नक्श-ए-जान मिटा दूँ क्या ?
मुझको लिख के ख़त जानम
अपने ध्यान में शायद
ख्वाब ख्वाब ज़ज्बों के
ख्वाब ख्वाब लम्हों में
यूँ ही बेख्यालाना
जुर्म कर गयी हो तुम
और ख्याल आने पर
उस से डर गयी हो तुम
जुर्म के तसव्वुर में
गर ये ख़त लिखे तुमने
फिर तो मेरी राय में
जुर्म ही किये तुमने
जुर्म क्यूँ किये जाएँ ?
ख़त ही क्यूँ लिखे जाएँ ?