भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"वसंत को विस्मय है / आलोक श्रीवास्तव-२" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-२
 
|रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-२
 
|संग्रह=वेरा, उन सपनों की कथा कहो! / आलोक श्रीवास्तव-२
 
|संग्रह=वेरा, उन सपनों की कथा कहो! / आलोक श्रीवास्तव-२
}}
+
}}{{KKAnthologyBasant}}
 
{{KKCatKavita}}
 
{{KKCatKavita}}
 
<Poem>  
 
<Poem>  

18:53, 28 मार्च 2011 के समय का अवतरण

 
यह ऋतु तुम्हारा नाम है
उन्नीस बरस पहले जब इसी तरह
हवा में रंग और गंध बिखरे हुए थे
फूलों से लदी एक डोगी जब एक किनारा छोड़ रही थी
तुम जनमी थी

हर बरस संचित कर राग
तुम होती गयी हो कुसुमित
अंगों में खिलता गया है मधुमास

जिस दिन वन में पहले फूल खिले
तुमने उन्हें देखा
नदी का हिलोरें लेता जल
कांप कर तुम्हारी परछाईं से हो गया थिर
जब भी लौट कर आया ऋतुराज
और ही छवि थी तुम्हारी
देह में और ही गान

उन्नीस बरस बाद
जब आज तुम हंसती हो
हौले से कुछ कहती हो
तो अचरज होता है वसंत को
कुछ हो रहा है जो बिलकुल नया है
अबूझ है वसंत को तुम्हारी यह बदली दुनिया
वह बस विस्मय से तुम्हें निहारता है ।