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वसंत को विस्मय है / आलोक श्रीवास्तव-२

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यह ऋतु तुम्हारा नाम है
उन्नीस बरस पहले जब इसी तरह
हवा में रंग और गंध बिखरे हुए थे
फूलों से लदी एक डोगी जब एक किनारा छोड़ रही थी
तुम जनमी थी

हर बरस संचित कर राग
तुम होती गयी हो कुसुमित
अंगों में खिलता गया है मधुमास

जिस दिन वन में पहले फूल खिले
तुमने उन्हें देखा
नदी का हिलोरें लेता जल
कांप कर तुम्हारी परछाईं से हो गया थिर
जब भी लौट कर आया ऋतुराज
और ही छवि थी तुम्हारी
देह में और ही गान

उन्नीस बरस बाद
जब आज तुम हंसती हो
हौले से कुछ कहती हो
तो अचरज होता है वसंत को
कुछ हो रहा है जो बिलकुल नया है
अबूझ है वसंत को तुम्हारी यह बदली दुनिया
वह बस विस्मय से तुम्हें निहारता है ।