भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वसन्त / केदारनाथ अग्रवाल

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:00, 28 फ़रवरी 2008 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज




हिम के हत संकुचित प्रकृति अब फूली

रूप-राग-रस-गंध-भार भर झूली

रंगों से अभिभूत हुई चट्टानें

जड़ता में जागीं जीवन की तानें

नभ में भी आलोक-नील गहराया

सागर ने संगीत तरंगित गाया

आठ रूप शिव के, समाधि को त्यागे

मृण्मय अवनी के अंगों में जागे

वासंतिक वैभव यौवन पर आया

हरा-भरा संसार खिला मुस्काया ।