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वाल्मीकि - 2 / प्रतिभा सक्सेना

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ऋषि किसे बतायें अंतर में उठती दुख की कैसी कचोट,
सब कुछ कर त्याग गई सब कुछ,यह पता कि आयेगी न लौट!
मैं अवश अकेला तेरी ममता से वंचित,
तुझ पर क्या-क्या बीता होगा, क्षण-क्षण चिन्तित।

पुत्री बन इस जर्जर तन को दी ममता की शीतल छाया,
उस वत्सलता की स्मृति कर ऋषि का हताश मन भर आया!
तत्पर, प्रबंध में सतत लीन, इतने वर्षों के अनुष्ठान,
कितने आयोजन-प्रयोजनों को अपना ही कर्तव्य मान।
पा उसका स्नेह समझ पाया मैं, माता की ममता का सुख,
माँ स्वयं अवतरित होती क्या पुत्री का रूप धरे सम्मुख?
मै आज थाह पाया पुत्री के विवश पिता का दुख अछोर,
मन पर पहाड सा बोझ धरे, आँसू से आँजे नयन कोर!

कैसे हल होंगे जीवन के ये समीकरण?
उठते विचार कर वैषम्यों को निरावरण।
उत्तरदायी है कौन जानते होंगे सब,
यह वृद्ध,पिता बन उत्तर माँग रहा है अब।
कैसी स्थिति सिद्धान्त, न्याय, हो गये व्यर्थ,
जड़-मति, असंस्कृत जन के ही मत का महत्व!
क्या यही मोल होगा पत्नी की निष्ठा का,
उसके इस निःस्व समर्पण और प्रतिष्ठा का?

क्यों व्यर्थ किया दण्डित उसको जो दोष-हीन,
तुम कैसे राम हो सके इतने आत्मलीन?
तुम काश, खड़े हो पाते कुत्सा के सम्मुख,
सहधर्मिणि के सम्मान और संरक्षण हित!
सद्नारी के गौरव संपादन के बदले,
दाम्पत्य धर्म के सूत्र भूल अगले पिछले
उसके गौरव औ मर्यादा का सतत हनन,
आवरण सत्य पर, विश्वासों का अनिर्वहन।

नारी-तन गर्हित, स्वर्ण अमूल्य परम पावन,
क्या जन सीखेंगे, तुमसे पा कर उदाहरण?
सामान्य अबोध-जनो के मनमाने प्रलाप,
पर निर्भर होगा अनुशासन और राज-काज?
वेदों ने चिर उन्मुक्त रखा कह 'चरैवेति'
इनने परतंत्र बना डाली वह मानव-मति!

जीवन के सत्यों को स्वीकार न करके,
आनन्द तिरोहित कर डाला सब मन का
सारा रस व्यर्थ तपा डाला किस भ्रम में,
कर दिया व्यर्थ वरदान मानवी तन का!
संसार राम के साथ न चल पाये तो,
पहले जग जीवन के दायित्व निभाते,
यह तन पा कर कर्तव्य कर्म पूरे कर,
अति शान्त भाव से सारे ऋण निबटाते!
इस धरती को आनन्द-रसों से सिंचित,
भावी का भी दायित्व निर्वहन करते,
यदि राम व्याप्त सचमुच ही तुम सब में ही,
सुन्दर से सुन्दर तर, सुन्दरतम करते!

संसार राम के साथ न सध पाये तो,
फिर किसके लिये यहाँ जन्में तुम आकर?
जीवन का परम अर्थ तुम काश बताते,
श्रेयस्कर शान्ति और सुख ही दे जाते!

तुम जिये न सुख से औरों को जीने न दिया,
यह राम, बताओ, तुमने किसके लिये किया?
पालन न कर सके अपनी ही संततियों का,
भावी पीढी माँगेगी, दोगे उत्तर क्या?
अपने सिर धरते रहे तुम्हारी सभी विपद्,
आज्ञाकारी लक्ष्मण दंडित हो गये व्यर्थ
आदेश तुम्हारा अपना धर्म बना पाला,
बिन सोचे-झिझके भले अर्थ हो या अनर्थ।

तुम भ्राता परम-भक्त लघु भाई था जो,
उसके अनिष्ट का करते तुम्हीं निवारण,
यदि धर्म न कर पाये समाज को धारण,
तो अर्थ बदल दो, बने न भ्रम का कारण!
जो न्याय, सत्य, सिद्धान्त, उपेक्षित करदे,
केवल अबुद्ध जनमत का करने मण्डन,
दाम्पत्य धर्म जो है आधार जगत का,
के दायित्वों का कर न सके निर्वाहन,
माता, गुरु, सचिव-मंत्रणा का अब कुछ न काम,
राजा हैं परम मान्य औ सर्वसमर्थ राम!